क्या साथ-साथ चुनाव का समय आ गया है?

क्या साथ-साथ चुनाव का समय आ गया है?

 

साथ-साथ चुनाव कराने की बातें पिछले कुछ सालों से हो रही हैं। भाजपा के नेता लालकृष्ण आडवानी ने 2012 में ही इस तरह का प्रस्ताव रखा था। उस समय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने भी इस पर अपनी सैद्धांतिक सहमति दिखाई थी। भारतीय जनता पार्टी ने 2014 के लोकसभा चुनाव के पहले जारी किए गए अपने चुनावी घोषणा पत्र में भी इसे शामिल किया था। 2015 में संसद की एक स्थायी समिति ने भी इसके पक्ष में विचार व्यक्त करते हुए कहा था कि इससे खर्च की बचत होगी और समय भी बचेगा। फरवरी 2016 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने लोकसभा को संबोधित करते हुए इस विचार को आगे बढ़ाने का सुझाव दिया था और कहा था कि राजनैतिक पार्टियों को इस पर सहानुभूतिपूर्वक विचार करना चाहिए और इसे राजनैतिक चश्मे से नहीं देखा जाना चाहिए।

लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ करवाने का मसला एक बार फिर सामने आया है। इस बार निर्वाचन आयोग ने कहा है कि वह साथ-साथ चुनाव करवाने के लिए तैयार है, बशर्तें कि सभी पार्टियों को इसके लिए तैयार किया जाय। निर्वाचन आयुक्त ओपी रावत ने कहा है कि निर्वाचन आयोग की हमेशा यह राय रही है कि साथ-साथ चुनाव कराने से सरकार के पास नीतियां बनाने और उनपर अमल के लिए पर्याप्त समय रहेगा। इसके कारण बीच-बीच में आदर्श चुनाव संहिता के अमल में आने से होने वाले ठहराव पर रोक लगेगी।

निर्वाचन आयोग ने चुनाव के लिए नये ईवीएम और वीवीपीएटी मशीनों की खरीद के लिए कोष की मांग भी की है। उसने दावा किया है कि यदि उसे पर्याप्त कोष मिल जाता है तो वह अगले साल सितंबर तक लोकसभा और देश की सभी विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने में समर्थ हो जाएगा। ऐसा करने के लिए आयोग को 24 लाख ईवीएम और इतनी ही वीवीपीएटी मशीनें चाहिए। इस समय संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार कार्यकाल विधानसभा या लोकसभा के कार्यकाल समाप्त होने के 6 महीने पहले चुनाव कराए जा सकते हैं।

संविधान के निर्माताओं ने लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव साथ-साथ कराने की ही व्यवस्था की थी। 1967 तक लोकसभा और सभी विधानसभाओं के चुनाव साथ-साथ ही हुए थे। लेकिन उसके बाद विधानसभाओं की अस्थिरता और धारा 356 के इस्तेमाल द्वारा उसे भंग करने की घटनाओं के कारण वह व्यवस्था साथ-साथ नहीं चल सकी। खुद लोकसभा का भी 1971 में मध्यावधि चुनाव हो गया था। उसके बाद भी अनेक बार लोकसभा के चुनाव तय समय के पहले करवाने पड़े, क्योंकि सरकारें बहुमत खो दिया करती थीं।

इसके कारण अब राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव अलग-अलग समय में होते रहते हैं। जब भी किसी विधानसभा का चुनाव होता है, तो उसकी तिथियों की घोषणा के साथ आदर्श चुनावी संहिता भी अमल में आ जाती है और केन्द्र सरकार पर भी वह लागू होती है। उस दौरान केन्द्र सरकार वैसा कुछ नहीं कर सकती, जिससे मतदाताओं के प्रभावित होने की संभावना रहती है। यही नहीं, मतदाताओं के नाराज होने के डर से सरकार कुछ ऐसे निर्णय भी नहीं ले सकती, जो तत्काल रूप से लोगों को असुविधा पैदा करने वाले हो सकते हैं।

साथ-साथ चुनाव कराने की बातें पिछले कुछ सालों से हो रही हैं। भाजपा के नेता लालकृष्ण आडवानी ने 2012 में ही इस तरह का प्रस्ताव रखा था। उस समय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने भी इसपर अपनी सैद्धांतिक सहमति दिखाई थी। भारतीय जनता पार्टी ने 2014 के लोकसभा चुनाव के पहले जारी किए गए अपने चुनावी घोषणा पत्र में भी इसे शामिल किया था। 2015 में संसद की एक स्थायी समिति ने भी इसके पक्ष में विचार व्यक्त करते हुए कहा था कि इससे खर्च की बचत होगी और समय भी बचेगा।

फरवरी 2016 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने लोकसभा को संबोधित करते हुए इस विचार को आगे बढ़ाने का सुझाव दिया था और कहा था कि राजनैतिक पार्टियों को इस पर सहानुभूतिपूर्वक विचार करना चाहिए और इसे राजनैतिक चश्मे से नहीं देखा जाना चाहिए। उसी साल सितंबर महीने में मोदी सरकार ने इस मसले पर लोगों के विचार मांगे। नीति आयोग भी इसके पक्ष में है। उसने 2014 से साथ-साथ चुनाव कराने की बात कही है।

यह विचार अच्छा है, लेकिन इसे अमल में लाना आसान नहीं है। इसके लिए संविधान में बदलाव लाना होगा और उसके लिए दोनों सदनों में अलग-अलग इस संशोधन को दो तिहाई का समर्थन होना चाहिए। यह तभी संभव है, जब इस मसले पर राजनैतिक आम सहमति हो, लेकिन यह फिलहाल संभव नहीं दिखाई पड़ रहा है।
Source:Agency

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